(अंग्रेजी समाचार पत्र ‘मदरलैंड’ के संपादक श्री मलकानी से २३ अगस्त १९७२ को दिल्ली में हुअा वार्तालाप)
श्री मलकानी: राष्ट्रीयता की भावना के पोषण के लिए क्या आप समान नागरिक संहिता को आवश्यक नहीं मानते?
श्री गुरुजी: मैं नहीं मानता । इससे आपको या अन्य बहुतों को आश्चर्य हो सक्ता है, परंतु यह मेरा मत है और जो सत्य मुझे दिखाई देता है, वह मुझे कहना ही चाहिए ।
श्री मलकानी: क्या आप यह नहीं मानते कि राष्ट्रीय एकता की वृद्धि के लिए देश में एकरूपता आवश्यक है?
श्री गुरुजी: समरसता और एकरूपता दो अलग-अलग बातें हैं । एकरूपता जरूरी नहीं हैं । भारत में सदा अपरिमित विविधताएँ रही हैं । फिर भी अपना राष्ट्र दीर्घकाल तक अत्यंत शक्तिशाली और संगठित रहा है । एकता के लिए एकरूपता नहीं, अपितु समरसता आवश्यक है ।
श्री मलकानी: अपने संविधान से निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है कि राज्य समान नागरिक संहिता के लिए प्रयत्न करेगा?
श्री गुरुजी: यह ठीक है । ऐसा नहीं कि समान नागरिक संहिता से मेरा कोई विरोध है, किंतु संविधान में कोई बात होने मात्र से ही वांछनीय नहीं बन जाती । फिर, यह भी तो है कि अपना संविधान कुछ विदेशी संविधानों के जोड़-तोड़ से निर्मित हुआ है । वह न तो भारतीय जीवन दृष्टिकोण से रचा गया है और न उसपर आधारित है ।
श्री मलकानी: क्या आप यह मानते हैं कि समान नागरिक संहिता का विरोध मुसलमान केवल इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वे अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं?
श्री गुरुजी: किसी वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय द्वारा निजी अस्तित्व बनाए रखने से मेरा तब तक कोई झगड़ा नहीं है, जब तक कि इस प्रकार का अस्तित्व राष्ट्रभक्ति की भावना से दूर हटाने का कारण नहीं बनता ।
मेरे मत से कुछ लोग समान नागरिक संहिता की आवश्यकता इसलिए महसूस करते हैं कि उनके विचार में मुसलमानों को चार शादियाँ करने का अधिकार होने के कारण उनकी आबादी में असंतुलित वृद्धि हो रही है । मुझे भय है कि समस्या के प्रति सोचने का यह एक निषेधात्मक दृष्टिकोण है ।
वास्तविक समस्या तो यह है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भाई-चारा नहीं है । यहाँ तक कि धर्मनिरपेक्ष कहलानेवाले लोग भी मुसलमानों को पृथक जमात मानकर ही विचार करते हैं । निश्चित ही उनके वोट-बैंक के लिए उन्हें खुश करने का तरीका अपनाया है । अन्य लोग भी उन्हें मानते तो अलग ही हैं, किंतु चाहते यह हैं कि उनके पृथक अस्तित्व को समाप्त कर उन्हें एकरूप कर दिया जाए । तुष्टिकरण करनेवालों और एकरूपता लानेवालों में कोई मौलिक अंतर नहीं है । दोनों ही मुसलमानों को पृथक और बेमेल मानते हैं ।
मेरा दृष्टिकोण पूर्णत: भिन्न है । जब तक मुसलमान इस देश और यहाँ की संस्कृति से प्यार करता है, उसका अपनी जीवन-पद्धति के अनुसार चलना स्वागत योग्य है । मेरा निश्चित मत है कि मुसलमानों को राजनीति खेलनेवालों ने खराब किया है । कांग्रेस ही है, जिसने केरल में मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित कर देश-भर में मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है ।
श्री मलकानी: इन्हीं तर्कों के आधार पर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदू आ कोड का निर्माण किया जाना भी अनावश्यक और अवांछनीय है ?
श्री गुरुजी: मैं निश्चित रूप से मानता हूँ कि हिंदू- कोड राष्ट्रीय एकता और एकसूत्रता की दृष्टि से पूर्णत: अनावश्यक है । युगों से अपने यहाँ असंख्य संहिताएँ रही हैं, किंतु उनके कारण कोई हानि नहीं हुई । अभी-अभी तक केरल में मातृसत्तात्मक पद्धति थी । उसमें कौन सी बुराई थी ? प्राचीन और आधुनिक सभी विधि-शास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि कानूनों की अपेक्षा रूढ़ियाँ अधिक प्रभावी होती हैं, और यही होना भी चाहिए । ‘शास्त्राद् रूढ़िर्बलियसी’ शास्त्रों ने कहा है कि रूढ़ियाँ शास्त्रों से प्रभावी हुआ करती हैं तथा रीतियाँ स्थानीय या समूह की हुआ करती हैं । स्थानीय रीति-रिवाजों या संहिताओं को सभी समाजों द्वारा मान्यता प्रदान की गई है ।
श्री मलकानी: यदि समान नागरिक कानून जरूरी नहीं है, तो फिर समान दंड-विधान की भी क्या आवश्यकता है?
श्री गुरुजी: इन दोनों में एक अंतर है । नागरिक संहिता का संबंध व्यक्ति एवं उसके परिवार से है । जबकि दंड-विधान का संबंध न्याय, व्यवस्ता तथा अन्य असंख्य बातों से है । उसका संबंध न केवल व्यक्ति से है, अपितु बृहद् रूप में वह समाज से भी संबंधित है ।
श्री मलकानी: अपनी मुस्लिम बहने को पर्दे में बनाए रखना और बहुविवाह का शिकार होने देना क्या योग्य है ?
श्री गुरुजी: मुस्लिम प्रथाओं के प्रति आपकी आपत्ति यदि मानवीय कल्याण के व्यापक आधार पर हो तब तो, वह उचित है । ऐसे मामलों में सुधारवादी दृष्टिकोण ठीक ही है । परंतु यांत्रिक ढंग से कानून के बाह्य उपचारों द्वारा समानता लाने का दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा । मुसलमान स्वयं ही अपने पुराने नियम-कानूनों में सुधार करें । वे यदि इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बहुविवाह-प्रथा उनके लिए अच्छी नहीं है, तो मुझे प्रसन्नता होगी । किंतु अपना मत मैं उनपर लादना नहीं चाहूँगा ।
श्री मलकानी: तब तो यह एक गहन दार्शनिक प्रश्न बनता प्रतीत होता है ?
श्री गुरुजी: निश्चित ही यह ऐसा है । मेरा मत है कि एकरूपता राष्ट्रों के विनाश की सूचना है । प्रकृति एकरूपता स्विकार नहीं करती । मैं, विविध जीवन-पद्धतियों के संरक्षण के पक्ष में हूँ । फिर भी ध्यान इस बात का रहना चाहिए कि ये विविधताएँ राष्ट्र की एकता में सहायक हों । वे राष्ट्रीय एकता के मार्ग में रोडा़ न बनें ।
श्री गुरुजी समग्र
खंड ९: १९५,१९६,१९७, १९८
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महाल,
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